★ ओपी चौधरी बन गए हैं आम जनता के उम्मीदवार

★ वर्चस्व टूटता देखकर बौखला उठा भाजपा का अभिजात्य वर्ग

★ दुष्प्रचार में जुटा धनवान ताक़तों का इको सिस्टम

रायगढ़ । सन 1952 से अब तक के 71 वर्षों में भारतीय चुनावी राजनीति निरंतर बदली है । आरंभिक दौर में पूरी राजनैतिक प्रक्रिया में धनिक – अभिजात्य वर्ग का जो एकक्षत्र अधिपत्य था, वह राजनैतिक बदलाव के मध्य- चरण तक आते-आते टूटने लगा क्योंकि पिछड़ी जातियों के उदीयमान समूहों ने सरकार में अपनी हिस्सेदारी की मांग शुरू कर दी थी । पहले-पहल तो अभिजात्य वर्ग ने पिछड़ी जातियों के इन समूहों से गठजोड़ करके चुनावी समर्थन के बदले इन्हें अपने से कनिष्ठ पदों पर आसीन किया तथा कुछ आर्थिक फायदे देकर इन्हें संतुष्ट किया । बाद में निरंतर बढ़ते हुए दबावों के कारण राजनैतिक दलों को इन उदीयमान जातीय समूहों को राजनैतिक प्रतिनिधित्व देने के लिए बाध्य होना पड़ा ।

अब राजनीति में यद्यपि उदीयमान जातीय समूहों को स्थान देकर राजनीतिक दल बहु-जातीय गठजोड़ तो अवश्य करने लगे हैं तथापि सत्ता पर परोक्ष नियंत्रण धनवान शक्तियों का ही है । जब-जब भी धनिक वर्चस्व वादी अभिजात्य वर्ग को अपना राजनीतिक नियंत्रण कमजोर पड़ता हुआ दिखाई देता है तब-तब वे अपना कब्जा कायम रखने के लिए सचेत कूटनीतिक अभियान चलाने लगते हैं । इन षड्यंत्रकारी अभियानों में उदीयमान पिछड़ी जातियों को एक-दूसरे के सामने खड़ा करके उनमे फूट डालना , वैकल्पिक नेताओं को लेकर काल्पनिक भय पैदा करना , भ्रम फैलाना , मनगढंत कहानियां गढ़कर प्रतिस्पर्धी नेताओं की छवि धूमिल करना आदि हथकंडे अपनाये जाते हैं । इसके साथ ही अमीर-उमराओं का यह ताक़तवर तबका अपने अकूत धन-संसाधनों का इस्तेमाल करके थिंक टैंक्स व मीडिया संगठनों का एक बड़ा नेटवर्क और सधा हुआ ‘ इको- सिस्टम’ खड़ा कर लेता है । फिर ये लोग इस इको सिस्टम के जरिये आक्रामक प्रचार के द्वारा आम-जनता के विचारों को नियंत्रित करके राजनीतिक चर्चा को अपने इच्छा के अनुरूप आकार देते हैं । इस प्रयास में ये चालाक लोग तरह-तरह के भ्रामक विश्लेषण , गैर जरूरी मुद्दे व कल्पित कथाओं की श्रृंखला खड़ी करते हैं । इस शातिराना प्रक्रिया को ‘सहमति- असहमति’ निर्माण की इंजीनियरिंग कहा जाता है । रायगढ़ विधानसभा की हालिया राजनीति में हम इसी कुटिल तरीके को चरितार्थ होता हुआ देख रहे हैं ।

रायगढ़ विधानसभा का इतिहास देखें तो केवल एक निरंजन लाल शर्मा के अपवाद को छोड़कर सन 1962 से लेकर 2008 तक इस विधानसभा का नेतृत्व प्रतिष्ठित अग्रवाल समुदाय के लोगों ने ही किया है । इस लंबी पारी के कारण स्वाभाविक रूप से रायगढ़ सीट पर इनका एक पक्षीय अधिकार तय मान लिया गया था । वर्ष 2008 में रायगढ़ विधान सभा का नया परिसीमन हुआ और सरिया का एक बड़ा हिस्सा इसमें जुड़ने से नए राजनैतिक समीकरण बने तथा डॉ शक्रजीत नायक ने तात्कालीन विधायक विजय अग्रवाल को पराजित करके इस मिथक को तोड़ दिया । इसके बाद वर्ष 2018 के चुनाव में प्रकाश नायक की जीत ने अग्रवाल सीट के दावे वाली कहानी पर पूरी तरह विराम लगा दिया ।

आसन्न विधानसभा चुनाव में मौजूदा विधायक प्रकाश नायक की टिकट लगभग तय मानी जा रही है वहीं भाजपा से यूथ आइकॉन व पूर्व आई ए एस ओ पी चौधरी की टिकट भी परोक्ष रूप से घोषित मानी जा रही है । इस नए बदलाव ने परंपरागत रूप से इस सीट पर काबिज रहने वाली धनवान ताक़तों को बेचैन कर दिया है और इनका इको- सिस्टम भ्रम फैलाने में पूरी तेजी से सक्रिय हो गया है । चूंकि टिकट हेतु इस तबके की सारी उम्मीदें भाजपा पर ही केंद्रित थी , इसीलिए इनका नेटवर्क (इको- सिस्टम) भाजपा के संभावित उम्मीदवार ओ पी चौधरी पर बुरी तरह से हमलावर है । उन पर तरह-तरह के कोणों से जुमले उछाले जा रहे हैं । इधर राजनैतिक प्रेक्षकों का मत है कि ओ पी चौधरी आम-जनता के उम्मीदवार बन चुके हैं अतः उन पर हो रहे तमाम बे-बुनियाद हमले भोथरे साबित हो रहे हैं । यह भी आकलन है कि ओपी के खिलाफ पूंजीवादी ताक़तों की लामबंदी की प्रतिक्रिया में समाज के शेष तबकों व सर्वहारा वर्ग का ध्रुवीकरण तेज़ी से ओपी के पक्ष में हो सकता है । कुल मिलाकर 2023 का चुनाव रायगढ़ विधान सभा की राजनैतिक दिशा व दशा को बदलने वाला चुनाव सिद्ध होने जा रहा है । फिलहाल यह देखना दिलचस्प होगा कि अंततः ऊंट किस करवट बैठता है ।

*दिनेश मिश्र*

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *